कोरोना वायरस के दौर में बढ़ रही हैं महिलाओं की मुश्किलें, बढ़ रहा है घरेलू हिंसा का ग्राफ

कोरोना वायरस के दौर में बढ़ रही हैं महिलाओं की मुश्किलें, बढ़ रहा है घरेलू हिंसा का ग्राफ

नरजिस हुसैन

अगस्त 2019 से पैदा हुआ कोरोना वायरस एक जानलेवा वायरस है यह बात आज हम सब पूरी तरह जान चुके हैं। ये पूरी दुनिया में फैल चुका है, इलाज और वैक्सीन के गैर-मौजूदगी में फिलहाल बचाव ही इसका इलाज माना जा रहा है। जिस तरह से भारत में 23 मार्च से लॉक डाउन हुआ उसी तरह उससे पहले और उसके बाद दुनियाभर के कई देशों ने खुद को पूरी तरह से घरों में बंद कर दिया है। सारी जरूरत की चीजे जैसे दुकाने, सार्वजनिक जगहें, सिनेमा, स्कूल, कॉलेज, मॉल सब कुछ बंद है। अब इस लॉक डाउन से सरकारे वायरस को कम या खत्म करने कोशिश कर रही है लेकिन, वहीं दूसरी तरफ घरों में बंद लोगों को अलग परेशानियां झेलनी पड़ रही है। परेशानियां सिर्फ बंद रहने की नहीं है बल्कि बंद रहने से पैदा हो रही है और इसमें पूरी तरह से आधी आबादी पर आए दोहरे बोझ को अनदेखा किया जा रहा है।

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दुनियाभर की सरकारें इन्हें अपनी-अपनी तरह से देख रही है लेकिन, सवाल यह है कि क्या इन लॉक डाउन को इस तरीके से नहीं लागू किया जा सकता था जिससे महामारी बन चुके कोरोना वायरस से पैदा हुई दूसरी बीमारियों से बचा जा सके। भारत में दस और विदेशों में (कहीं ज्यादा कहीं कम हुए) लॉक डाउन की वजह से घरेलू हिंसा, मानसिक तनाव, डिप्रेशन, एंजाएटी, अकेलेपन और आत्महत्या जैसे मामलों में इजाफा हो रहा है। यही नहीं उतर-पूर्व के लोगों के साथ होने वाली बदसुलूकी भी बढ़ रही है। सामाचारों में दिहाड़ी मजदूरों, प्रवासी मजदूरों, स्वास्थ्य वर्कस और विक्लांग लोगों की परेशानियों के बारे में देखा-सुना जा रहा है गौरोफिक्र हो रही है लेकिन, वह औरत जो गृहिणी है या जो नौकरीपेशा है उसके दर्द और मुसीबत को सुनने-देखने वाला कोई नहीं। दुनिया में इस वायरस और इससे पैदा होने वाले हर पहलु पर बात हो रही है लेकिन, इस सबमें आधी आबादी पर पड़ने वाले बोझ का कहीं  कोई जिक्र नहीं। यह एक और मौका है यह बताते के लिए कि देश और दुनिया में आज भी लिंग आधारित नीतियों पर चुस्ती से काम नहीं हो रहा है।

घरेलु हिंसा और मानसिक स्वास्थ्य की शिकार औरत

हालांकि कोरोना वायरस के इस पूरे दौर में घरों में बढ़ रही हिंसा और अत्याचार की तरफ पूरी दुनिया की सरकारों की आंखे बंद है लेकिन, हकीकत यही है कि इस तरह की हिंसा का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। सरकारों के घरों से बाहर न निकलने के सख्त आदेशों के बाद से अमेरिका, ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस और चीन समेत कई अन्य देशों में इसकी घटनाएं सबसे ज्यादा दर्ज की गई हैं। भारत में भी 24 मार्च के लॉक डाउन के बाद से घरों में बैठे कुंठित पतियों की घरेलू हिंसा शिकायतें दर्ज हुई है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने 23 मार्च से 30 मार्च के बीच देश के अलग-अलग हिस्सों से घरेलु हिंसा के कुल 58 मामले दर्ज किए हैं।

यही नहीं मलेशिया में तो बढ़ती हुई इन हिसांओं को देखते हुए सरकार ने कांउसिलिंग और मानसिक स्वास्थ्य रोगियों की मदद के लिए तालिन कासिह नाम से हॉटलाइन की शुरूआत की है। एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियन नेंशनस यानी आसियान ने कोविड-19 के चलते सदस्य देशों में महिलाओं पर बढ़ रही हिंसा के मामले सामने आने की बात कही है। वहीं पेरिस में महामारी से 35 फीसद और ऑस्ट्रेलिया में 40 प्रतिशत तक घरेलु हिंसा के मामले बढ़े है।

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घरेलु हिंसा की सबसे बड़ी समस्या है कि यह गरीब तबकों में सबसे हो रहा है। उच्च और मध्यम वर्गीय औरते अभी इससे बची हुई है। और शायद यही बड़ी वजह है कि नीति बनाने वालों ने इस दिशा में नीतियां बनाने को ज्यादा प्राथमिकता नहीं दी। और जब औरतों को इन हालातों में सरकार से मदद की सबसे ज्यादा दरकार होती है तभी वह मदद उन तक नहीं पहुंच पाती। मुसीबत के वक्त हमारी पुलिस भी महिलाओं को नही सुनती और इस वजह से उन्हें दोहरी हिंसा का सामना करना पड़ता है।  

वर्क फ्राम होम से वर्क फॉर होम सब अकेले

लॉक डाउन से घर की औरतों पर काम का बोझ सबसे ज्यादा पड़ा है। इस वक्त घरों में बच्चे भी हैं और अगर बूढ़े मां-बाप हैं तो उनका भी इस दौरान खास ध्यान रखना जरूरी है। लॉक डाउन ने भारत जैसे देश में जहां मध्यम वर्गीय परिवार अपनी कई जरूरों के लिए दूसरों का सहारा लेता है वह भी नदारद है। मसलन, काम वाली बाई, ड्राइवर, प्रेस वाली, माली, ट्यूशन, कूड़ा उठाने वाला, किराने वाला जो घर पर सामान लाकर देता है और सब्जी वाला जो ठेली पर दरवाजे तक सब्जियां पहुंचाता है इस वक्त सब लॉक डाउन में घर बैठे हैं। हालांकि, पति भी इस समय पूरे वक्त घर पर है और कायदे से घर के कामों को दोनों के बांटना सही होता लेकिन, आदतन इस सारे अतिरिक्त काम का जिम्मा आता है अकेली औरत पर। अब अगर औरत कामकाजी हुई और उसे घर से ही ऑफिस का भी काम करना पड़ रहा है तो ऐसे में उसका दर्द बखूबी समझा जा सकता है जब वर्क फ्राम होम भी हो वर्क फॉर होम भी करना पड़ रहा हो। तो दोनों ही किस्म की औरतों पर शारीरिक और मानसिक दबाव इस वक्त बहुत ज्यादा है।

छंटनी में जा सकती है औरतों की नौकरियां

ज्यादातर जानकारों का कहना है कि कोविड-19 के बाद तेजी से गिरती अर्थव्यवस्था के मद्देनजर मध्यम और छोटे दफ्तर, संगठन, संस्थान और फैक्ट्री छंटनी के नाम पर सबसे पहले औरतों को ही काम पर से हटायेंगे। हालांकि, पिछले दो-एक साल में भारत में वर्कफोर्स में औरतों का योगदान काफी कम हुआ है। अगर किसी महिला की नौकरी रही भी तो हो सकता है कि आधे वेतन पर उन्हें अपनी सर्विसेज देनी पड़ी। तो इस तरह मौजूदा स्वास्थ्य संकट के जल्द ही आर्थिक संकट में भी तब्दील होने के आसार हैं। 

भारत में लड़कों की परवरिश में घरेलु काम की अहमियत नहीं

भारत में ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में आज भी लड़कों का घरेलु काम में मां के या पत्नी के हाथ बंटाने को इज्जत से नहीं देखता समाज। Organisation of Economic Cooperation and Development के 20015 के सर्वे के मुताबिक अन्य देशों के मुकाबले भारत में गैर कामकाजी औरत हर दिन कम-से-कम छह घंटे बिना वेतन के काम करती है। लॉक डाउन के बाद से जिन परिवारों में मां-बाप दोनो घर से ऑफिस का काम कर रहे हैं वहां बच्चे आपस में छोटे बड़े भाई बहनों को देख रहे हैं या फिर मां की उन्हें नहलाने, सुलाने खाना खिलाने की जिम्मेदारी है। पिता ने अगर इसमें कभी हाथ बंटा दिया तो और बात है लेकिन, रोजाना इस काम की जिम्मेदारी नहीं लेते। भारतीय परिवेश में दरअसल लड़को और बेटों को यह बताया जाता रहा है कि घर के काम उनके नहीं हैं उनकी जिम्मेदारी बाहर की है। अगर लॉक डाउन अप्रैल 14 से कुछ और आगे बढ़ा और कामकाजी औरतों की तनख्वाह काटी गई तो आने वासे वक्त में खासकर मध्यम वर्गीय परिवार कामवाली बाई का बोझ उठाने लायक रहेगा भी नहीं यह भी कहना मुश्किल है।

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तो इस तरह कोरोना का कहर जो सीधे तौर पर दिखाई दे रहा है वह तो कुछ भी नहीं उसका वह पहलु भी कम जानलेवा नहीं है जो घरों में बंद है। अफसोस की बात है कि कोरोना घरेलु हिंसा और अत्याचार के लिए भी एक महामारी की तरह ही साबित हो रही है।

 

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